सीमा पर फौजी तैनात रहते हैं, लेकिन युद्ध तो हर वक्त नहीं होते। फिर भी तैनात तो रहना पड़ता है। हर रोज अपने हथियार, बारूद की जाँच, पैट्रोलिंग चलती रहती है। कहीं हमला हो जाए। मेरे और दुनिया भर के तमाम चिकित्सकों की स्थिति यही है कि कहीं किसी भेष में कोरोना मरीज अगर आ जाए, तो हम क्या करेंगे?
अन्य कई बीमारियों में आप लक्षण से पहचान कर सकते हैं, लेकिन इस बीमारी में अधिकतर मरीज या तो बिना लक्षण के मिल रहे हैं, या मामूली लक्षणों के साथ। यह स्थिति मानहट्टन या न्यू जर्सी (अमेरिका) की नहीं है। वहाँ गंभीर हालत में मरीज आते हैं, सीधे आइ. सी. यू. ले जाए जाते है, और उनमें से अधिकतर मरते चले जाते हैं। वहाँ प्रोटोकॉल बनाना आसान है। जैसे युद्ध चल रहा हो, तो कंफ्यूजन नहीं है।
फौज को युद्ध लड़ना ही है। समस्या तो तब है जब युद्ध का खतरा हो, और आप आहटें सुनने की कोशिश कर रहे हों। नॉर्वे उन देशों में है, जहाँ कोरोना एक ऊँचे आँकड़े पर पहुँच कर अब नीचे आता जा रहा है। केस घटते जा रहे है। छोटा सा देश है, जनसंख्या भी कम है। इसकी तुलना भारत या अमरीका से नहीं की जा सकती। लेकिन, कुछ रणनीतियाँ हैं, जिस पर मुझे भी शक था, अब लगता है कि ठीक थे। लॉकडाउन तो दुनिया के अलग-अलग देश कर ही रहे हैं। नॉर्वे ने अस्पतालों का ही लॉकडाउन कर दिया। उसे एक क़िले में तब्दील कर दिया। और आज तक वही स्थिति है। हमने अपने दरवाज़े बंद कर रखे हैं। कोई भी व्यक्ति पूछ-ताछ के बाद ही अंदर आएगा, चाहे एक घुटने का एक्स-रे कराने क्यों न आए। सीधी सी बात है कि वह व्यक्ति कोरोना का मरीज हो सकता है।
यह एक चेक-पोस्ट है।
इस बात को समझने की जरूरत है कि संक्रमण का खतरा एक बैंक, एक दुकान, या एक बस से कहीं अधिक एक अस्पताल में है। जबकि हम इसके ठीक उलट सोचते हैं कि अस्पताल आ गए तो बीमारी से मुक्त हो जाएँगे। सबसे अधिक संक्रमण अस्पताल से ही होते हैं। वूहान (चीन) के जो पहले 138 कोरोना केस मिले थे, उनमें से 59 केस अस्पताल के अंदर ही संक्रमित हुए।
अस्पताल में अगर मजबूत क़िलाबंदी की जाए, तो रोग को सीमित करना आसान होगा। लेकिन, प्रश्न यह है कि अगर किसी व्यक्ति को कोरोना की शंका हो, तो वह अस्पताल न जाए तो कहाँ जाए? नॉर्वे ने अगर उन मरीजों के लिए दरवाजे बंद कर दिए, तो वे आखिर कहाँ गए?
(क्रमश:)
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