कोरोना पॉजीटिव को लक्षणों के आधार पर चार वर्गों में बाँट सकते हैं। एक, जिन्हें कोई लक्षण ही नहीं और न कभी होंगे। दूसरे, जिन्हें मामूली लक्षण हैं या फिर ऐसे लक्षण हैं जो घर बैठे ही ठीक हो जाएँगे। तीसरे, जिनको गंभीर लक्षण हैं और/या साथ में कोई और गंभीर बीमारी है। चौथे, जिन्हें वेंटिलेटर की या ऑक्सीजन सपोर्ट की ज़रूरत है। कोरोना के साथ जो हमारे अनुभव रहे, उसमें नब्बे प्रतिशत पहले दो वर्गों के थे। उन्हें कभी अस्पताल आना ही नहीं पड़ा, और घर में ही ठीक हो गए। वे घर में ही ‘क्वारांटाइन’ रहे। यानी, स्वास्थ्य-तंत्र का उनमें निवेश जाँच के बाद अधिक नहीं रहा। न ही उन्होंने ज़बरदस्ती
एडमिशन के लिए कहा। उन कोरोना पॉजीटिव लोगों के सहयोग से ही संक्रमण घटने लगा। किसी भी तरह का पैनिक नहीं। न ही कोई शिकायत। न ही दुबारा जाँच कराने के लिए फ़ोन, कि हमें निगेटिव सिद्ध करो। बल्कि, यहाँ दूसरी बार जाँच लगभग न के बराबर किए गए। तीन हफ्ते के बाद लक्षण-मुक्त होने पर उनको स्वस्थ मान लिया गया। इस कारण देश के संसाधन फ़िजूलखर्च नहीं हुए।
उन पॉजिटिव रोगियों, जिनको गंभीर लक्षण हैं, सिर्फ उनके लिए ही अस्पताल के द्वार खुले। वह भी सिर्फ ख़ास अस्पताल के ख़ास विभाग के। उस स्थान पर ही आपको वे चिकित्सक मिलेंगे, जो वह आडम्बरी PPE सूट पहन कर तैयार रहते हैं। मैं उस विभाग से दूर हूँ, तो मेरे पास एक साधारण मास्क ही रहा। मेरे पास इतनी लक्ष्मण रेखाएँ फाँद कर कम ही कोरोना मरीज आ सके। ऐसा नहीं कि संक्रमण नहीं हुआ।
संक्रमण तो विभाग में हो ही गया, लेकिन बहुत कम। और जिन्हें हुआ, वे ठीक भी हो गए। इसकी संभावना थी कि अगर हर विभाग के लोग PPE पहने रहते तो संक्रमण और भी कम होता। लेकिन, मेरी अमरीकी मित्रों से बातचीत में यही पता लगा कि PPE के बावजूद भी संक्रमण तो होता ही है। नॉर्वे एक धनी, किन्तु कंजूस देश है। अपनी व्यवस्था से इसने PPE पर बहुत खर्च बचाया। जिन देशों का स्वास्थ्य बजट पहले से कम है, उन्हें इस किफ़ायती पर ध्यान देना होगा। यह मात्र सरकार की नहीं, नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है कि सरकारी तंत्र पर फ़िजूल दबाव न डालें। अगर कोरोना पॉज़ीटिव हैं, किंतु लक्षण अधिक गंभीर नहीं, तो कृपया अस्पताल के दरवाजे न खटखटाएँ। यथासंभव क्वारांटाइन रहें।
(क्रमश:)
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