संक्रमणों का बिन्दु-सत्य: कोरोना से खसरे तक, ड्रॉप्लेट से एरोसॉल तक

डॉक्टर स्कन्द शुक्ला  

संक्रामक रोगों की फेहरिस्त में खसरे या मीज़ल्स का ख़ास स्थान है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस रोग की संक्रामकता अत्यधिक है। एक खसरा-रोगी 12-18 नये लोगों को संक्रमित कर सकता है , जबकि एक पोलियो-चेचक-रूबेला-रोगी की क्षमता लगभग छह व्यक्तियों को संक्रमित करने की है। वर्तमान कोरोना-विषाणु-रोगी दो-से-तीन लोगों को संक्रमित कर सकता है।

खसरे की इस अत्यधिक संक्रामकता में नन्हे खसरा-विषाणु का हवा में एरोसॉल-रूप में तैर सकना है। खसरा-रोगी के खाँसने-छींकने से यह वायु में पहुँचता है और वहाँ दो-तीन घण्टों तक रह सकता है। एरोसॉल किसी ठोस अथवा तरल के अतिसूक्ष्म कणों को कहते हैं , जो वायु अथवा किसी गैस में तैर सकते हैं। ये एरोसॉल प्राकृतिक भी हो सकते हैं और मनुष्य-निर्मित भी। कोहरा और गीज़रों की वाष्प प्राकृतिक एरोसॉलों का उदाहरण है, जबकि ख़सरे की खाँसी के कणों का एरोसॉल-स्वरूप मानव-निर्मित कहा जा सकता है।

कोरोना विषाणु के सन्दर्भ में अनेक अनिश्चितताओं में एक यह भी है : क्या कोरोना विषाणु एरोसॉल-स्वरूप में वायु में तैर सकता है? अथवा वह केवल ड्रॉप्लेटों अर्थात् नन्हीं बूँदों में ही मौजूद रह पाता है ? ध्यान रहे कि ड्रॉप्लेट और एरोसॉल में अन्तर है: ड्रॉप्लेट एरोसॉल से कई गुना बड़ी होती हैं और भारी होने के कारण देर तक हवा में तैर नहीं सकतीं। कुछ शोध कोरोना-विषाणु के एरोसॉल-स्वरूप की पुष्टि कर रहे हैं , ड्रॉप्लेटों से तो ख़ैर यह फैल ही रहा है।

स्थिति को समझें। कोरोना-विषाणु से संक्रमित व्यक्ति छींकता या खाँसता है। नाक व मुँह से ड्रॉप्लेट निकलकर हवा में कुछ सेकेण्ड तैरती हैं और उसके बाद आसपास की वस्तुओं पर गुरुत्व के प्रभाव से बैठ जाती हैं। इन ड्रॉप्लेटों में मौजूद कोरोना-विषाणु इन वस्तुओं पर फैल जाते हैं, जहाँ ये घण्टों और अनेक बार कई दिनों तक ‘जीवित’ बने रह सकते हैं। इन भारी ड्रॉप्लेटों से सम्पर्क न हो, इसीलिए डॉक्टर कोरोना-संक्रमित रोगियों से एक मीटर की दूरी बनाने, हाथों को बार-बार धोने, आसपास की वस्तुओं और चेहरे-नाक-मुँह-आँखों को अनावश्यक न छूने की सलाह दे रहे हैं। इन सलाहों पर ध्यान देना सभी के लिए बेहद ज़रूरी है और इन्हें नज़रअंदाज़ कदापि नहीं किया जाना चाहिए।

लेकिन एरोसॉल का फैलाव अलग ढंग का है। अगर कोरोना-विषाणु एरोसॉल के रूप में हवा में काफ़ी समय तक बना रह सकता है , तो यह देर तक ढेरों लोगों को संक्रमित कर सकता है। हवा की दिशा, आर्द्रता और गरमी इन एरोसॉलों की दशा-दिशा तय करने में भूमिका निभाते हैं। अधिकांश शोधों का मानना अब-तक यही रहा है कि एरोसॉल-रूप में कोरोना-संक्रमण ( लगभग ) नहीं फैलता है। यह जानकारी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ड्रॉप्लेट बनाम एरोसॉल-संक्रमण में बचाव के तरीक़े भी भिन्न होंगे। जिस तौर-तरीक़ों से हम ड्रॉप्लेट-संक्रमण से बच सकते हैं, वे एरोसॉल-संक्रमणों को रोकने में अपर्याप्त रहेंगे।

कुछ मायक्रोबायलॉजिस्टों ने प्रयोगशालाओं में यद्यपि एरोसॉल-रूप में कोरोना-विषाणु-संक्रमण की आशंका जतायी है , पर व्यावहारिक संसार में अभी भी इस विषाणु का फैलाव ड्रॉप्लेटों द्वारा ही माना जा रहा है। वे ड्रॉप्लेट जो सीधे खाँसने-छींकने पर दूसरे को मिलती हैं अथवा उन वस्तुओं को छूने से प्राप्त होती हैं, जिनपर ये कुछ ही सेकेण्डों बाद बैठ जाती हैं।

विषाणु पर शोध अनवरत जारी हैं। आगे अगर प्रयोगशाला का अपवाद-सत्य व्यावहारिक सत्य सिद्ध हुआ, तो स्थिति बड़ी विषम होगी।

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