जब सूरत में महामारी आयी तो आपदा-प्रबंधन चिकित्सक टीमों को यह स्पष्ट निर्देश था कि ‘ट्रायज’ प्रणाली अपनानी है। यह किसी भी आपदा (युद्घ/भूकंप/महामारी) के लिए लागू है। इसका अर्थ यह है कि चिकित्सक जरूरतमंदों को अलग-अलग समूहों में बाँटते हैं। पहला, जिसे हल्की बीमारी है; दूसरा, जिसे गंभीर बीमारी है लेकिन बचने की उम्मीद है; तीसरा, जो मरणासन्न है और बचने की उम्मीद कम है। इसमें किसे पहले लिया जाएगा?
दूसरे समूह को प्राथमिकता मिलेगी। तीसरे को मरने छोड़ दिया जाएगा। पहले को घर भेज दिया जाएगा। यही अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल है।
आप चाहे ब्रीच कैंडी अस्पताल पहुँच जाएँ, वहाँ एक आइसीयू में पचास वेंटिलेटर की उम्मीद नहीं। दो से चार वेंटिलेटर प्रति आइसीयू, एक बढ़िया आइसीयू है। अब महामारी में क्या करेंगे? महामारी तो छोड़िए, साधारण स्थिति में भी जब बीस-बीस दिन तक वेंटिलेटर पर मरीज रहते हैं और कोई गंभीर जरूरतमंद आ जाता है तो चिकित्सक ‘डू नॉट वेंटिलेट’ लिखवाने के लिए समझाना शुरू कर देते हैं। कि भाई! यह तो बीस दिन से रिकवर नहीं कर पा रहे, वेंटिलेटर अब हटा दिया जाए? मरीज के परिजनों के मानते ही, हटा दिया जाता है। यूरोप में यह निर्णय चिकित्सक और सिर्फ एक निकटतम परिजन मिल कर करते हैं। आपदा के समय यह प्रतिबद्धता भी नहीं। हाँ! इसमें अनैतिक है अगर किसी नेताजी या वीआइपी को वेंटिलेटर और सुविधाएँ दी गयी, और जरूरतमंद को नहीं दी गयी। यह न किया जाए।
यही संसाधन-प्रबंधन टेस्टिंग पर भी लागू है। टेस्टिंग-किट बचा कर चलना है। बूथ नहीं खोलने कि लाइन लगा कर जाँच करा लो। जो स्वास्थ्यकर्मी रोज कोरोना मरीजों से संपर्क में हैं, और उन्हें सर्दी-खाँसी हो गयी है, वह भी जाँच नहीं करा रहे। इसलिए कि मरीजों के लिए किट उपलब्ध रहे। वे स्वयं अदल-बदल कर क्वारांटाइन में जा रहे हैं। अब नियम यह आया है कि तीन दिन बाद अगर वह स्वस्थ महसूस कर रहे हैं तो वापस काम पर आ जाएँ। इसी सहयोग की सबसे अपेक्षा है। अपना ट्रायज स्वयं करें कि आपकी जरूरत कितनी है। अगर आपके बचने के चांस 98 % हैं तो क्या वाकई आप पर टेस्ट और अस्पताल का खर्च उठाया जाए, या आप घर बैठें और दूसरों से दूरी बना कर रखें?
यह निर्मम या क्रूर निर्णय नहीं है, यह एक दूसरे को बचाने का संघर्ष है। और यह आज नहीं शुरू हुआ।
समुदाय चेतना
यह मानव-संस्कृति का हिस्सा रहा है, जो छोटे-बड़े कार्य से लेकर आपदा तक के लिए प्रयोग में रहा है। इसका फॉर्मैट साधारण है। एक समुदाय एक लक्ष्य तय करता है, जैसे बाढ़ के समय टूटे पुल की मरम्मत करनी है। हर उम्र के लोग जमा होते हैं, सामान इकट्ठा किए जाते हैं, वहीं साझा चूल्हा पर खाना बन रहा होता है, गीत गा रहे होते हैं और पुल बन रहा होता है। बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में यह (कन्सार) आम है। सरकारी मदद तो जब आएगी, तब आएगी। शायद कभी न आए।
यूरोपीय देशों में यह विश्व-युद्ध के समय शुरू हुआ, जब राज्याध्यक्ष हिटलर के आक्रमण से भाग गए, सरकार रही नहीं, और जनता ने खुद ही मिल कर कार्य संभालने शुरू किए। यह प्रथा नॉर्वे में ‘दुग्नाद’ कहलाती है। इसमें लोगों को एक नोटिस आ जाता है कि आज मुहल्ले के सभी गिरे पेड़ हटा कर किनारे करने हैं और सफाई करनी है। यह कहने के लिए स्वैच्छिक है, लेकिन, यह होता अनिवार्य है। आप चाहे कितने भी अमीर हों, आपको फावड़ा, बड़े झाड़ू लेकर पहुँचना ही है। वहाँ खाने-पीने का इंतजाम भी सब मिल कर करेंगे, संगीत बजेगा, और काम होगा। हद तो यह है कि सरकारी स्कूलों के मैदान और कैम्पस की अर्धवार्षिक सफाई भी सरकार नहीं करती, सभी अभिभावक मिल कर करते हैं। यही सालों से प्रथा चली आ रही है।
लगभग एक हफ्ते पहले नॉर्वे की प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय दुग्नाद की घोषणा कर दी। ऐसा दशकों से नहीं हुआ था। इसका अर्थ ही है कि अब सरकार बस सहायक भूमिका निभाएगी, कार्य तो जनता को ही करना है। अब फेसबुक का जमाना है तो वहाँ भी कैम्पेन शुरू हो गए, लक्ष्य दिए जाने लगे। उन्हीं में एक लक्ष्य है कि एक भी क्वारांटाइन घर से निकलने न पाए। मुहल्ले वाले यह सुनिश्चित करें, जरूरत हो तो पुलिस को खबर करें। उनको राशन-पानी की जरूरत हो तो लाकर देते रहें, लेकिन घर से निकलने न दें। और अब नया लक्ष्य मिला है कि जितने भी स्वास्थ्य में थोड़े-बहुत भी अनुभव वाले लोग हैं, वे रजिस्टर करें। यह मास-मेसेज सरकार की तरफ से सबको मिल गया।
अब इसमें यह नहीं कह सकते कि यह मेरी जिम्मेदारी नहीं, सरकार की है। सरकार की भूमिका बस कोऑर्डिनेशन की है। और उन हज़ारों लोगों की मदद, जिन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है। निजी अस्पतालों ने जब अपने द्वार खोल दिए हैं, तो उनके होने वाली आर्थिक हानि में भी सरकार कुछ मदद कर रही है। लेकिन, कुल मिलाकर सामुदायिक चेतना का अर्थ यही है कि अब सरकार भी इस समुदाय का हिस्सा ही है। उसे भी हमें ही बचाना है। यह राष्ट्र-आपदा ही नहीं, विश्व-आपदा है और इसमें निजी स्वार्थ का स्थान न्यूनतम है।
यह आपदा खत्म हुई तो यही लोग एक-दूसरे का मुँह भी नहीं ताकेंगे। बैक टू बिजनेस चल देंगे। भारत इस मामले में कई कदम आगे है, और यहाँ समुदाय-बोध कभी खत्म नहीं होता। बस इसे जगाने की देरी है। यह इमरजेंसी है और मान कर चलिए कि दुनिया की काबिल सरकारों में भी इसे रोकने की शक्ति नहीं।
मास क्वारांटाइन
इसकी जरूरत अमूमन नहीं पड़ती, लेकिन बड़े देशों में यह कभी-कभी जरूरी होता है। जैसे चीन और भारत बड़े देश हैं, जहाँ अगर संक्रमण का केंद्र मालूम है, तो उसे बाकी के देश से काट कर ‘क्वारांटाइन’ करना पड़ता है। चीन में इसमें कुछ देर हुई, लेकिन पहले वूहान और आस-पास के शहरों के रास्ते बंद कर दिए गए, फिर पूरे हूबइ प्रांत के। इस वजह से काफी हद तक संक्रमण उस इलाके तक सीमित रह गया, और पूरे चीन में उस विकराल रूप में नहीं पसरा। इसका प्रबंधन भी सुलभ होता है कि पूरे देश की बजाय एक क्षेत्र पर फोकस करना। और आज चीन इस स्थिति में पहुँच रहा है कि एक भी नए केस नहीं मिल रहे। यह भारत में भी पहले गुजरात प्लेग के समय किया जा चुका है।
नॉर्वे में मेरे जिले में पिछले हफ्ते में मात्र एक केस मिला। मेरे पड़ोस के दो जिलों में भी बस एक-एक केस हैं। लेकिन ठीक अगले दो जिलों को मिला कर एक हज़ार केस हैं! ऐसा कैसे संभव है कि दो जिले मिला कर हज़ार केस हों, और पड़ोसी में बस एक? यह तो कोई तार्किक अनुपात ही नहीं। और ऐसा भी नहीं कि ट्रेन-बस बंद कर दिए गए। यह ‘मास क्वारांटाइन’ से संभव हो पाता है, जब उस क्षेत्र के लोगों को आवा-जाही बंद करने कह दिया जाता है। अब बीमारी पूरी गति से पसरेगी, लेकिन एक सीमित क्षेत्र में। वहाँ सरकारी फंड और संसाधन भी केंद्रित किए जाएँगे। इससे कुछ बीमारियों में एक सामूहिक इम्यूनिटी भी बनती है, जिसे ‘हर्ड इम्यूनिटी’ कहते हैं। लेकिन, कोरोना में यह संभव नहीं हो सका है।
भारत में भी यह पद्धति लागू है ही, और हो भी रही है। महाराष्ट्र से यातायात घटाने के प्रयास चल रहे हैं। जिन शहरों में एक भी केस मिल रहे हैं, वहाँ धारा 144 लगाने की कवायद चल रही है। यानी, उस शहर के लोग सामूहिक रूप से क्वारांटाइन पर चले जाएँ और आगे पसरने न दें।
यह ब्रह्मास्त्र है, लेकिन आर्थिक रूप से यह सबसे कारगर उपाय है। क्योंकि पूरे देश में पसरने के बाद संसाधन का वितरण असंभव होता जाता है, जिस समस्या से अमरीका जैसा शक्तिशाली और धनी देश अब जूझ रहा है।
कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग
जो विदेश से आया, उसकी कुंडली निकालो। स्कैंडिनैविया में पिछले दस दिन से यही चल रहा है। सभी फ्लाइट की लिस्ट निकाल कर उसके यात्रियों की कुंडली निकाल कर जाँच चल रही है। आप अगर फॉलो कर रहे होंगे तो दिखेगा कि सभी स्कैंडिनैवियाई देश कोरोना जाँच में सबसे आगे चल रहे हैं। फलत: उनकी गिनती भी सबसे तेज गति से बढ़ रही है। लेकिन मृत्यु-दर बहुत कम है। यह ‘कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग’ है। आप अगर किसी मित्र या परिजन को जानते हैं, जो विदेश से आया, उसकी खबर करें। उसे अपने स्तर पर क्वारांटाइन कर दें।
नॉर्वे में तो खैर क्वारांटाइन से भागने पर 2000 डॉलर फाइन या जेल का नोटिस निकल चुका है। अब तक 28500 लोगों की जाँच पूरी हो चुकी है, जिनमें पंद्रह सौ में वायरस पाया गया। उनके सभी कॉन्टैक्ट को घरबंद कर दिया गया। चार बुजुर्गों की मृत्यु हुई। 90 % लोग फिट हैं। जितने जाँचे गए, उनमें भी लगभग 80 % के अंदर वायरस नहीं मिला। अभी भी ढूँढा जा रहा है कि कोई रह तो नहीं गया।
यह सबसे सहज तरीका है, जब संक्रमण को उसके पहले ‘चेक-प्वाइंट’ पर रोका जा सकता है। केरल ने बेहतरीन तरीके से यह कुंडली निकाली और संक्रमण पर रोक लगायी। अब कर्नाटक यह मॉडल अपना रहा है। उड़ीसा ने विदेश से लौटने वालों के ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन का एक साइट बनाया है। वहीं दिल्ली हवाई-अड्डे पर आज देखा कि हंगामा हो गया। लोग जाँच कराने को तैयार नहीं। यह सरकार के साथ-साथ हमारी जिम्मेदारी है कि अपने बीच में से उन लोगों को मार्क करें, और उनके सभी कॉन्टैक्ट को। एयरलाइन्स तो यह डाटा दे ही चुकी होगी, लेकिन देश विशाल है। लोग कहाँ-कहाँ पसर गए होंगे। ईरान से आया वायरस लद्दाख़ में जाकर मिला। इसी तरीके से। कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग से।
भारत का समाज तो बहुत ही घना समाज है। हर व्यक्ति को पूरे मुहल्ले की खबर रहती है। यहाँ यह सुलभ है। यूरोप वाली बात नहीं कि पड़ोस की भी खबर नहीं। इस गुण को अब प्रयोग में लाने का वक्त है। यह मुखबिरी संक्रमण रोक लेगी।
संक्रमण में सबसे अधिक घातक है, वह स्वस्थ व्यक्ति जिसमें कोई लक्षण न हो, लेकिन वायरस पाल रहा हो। उस छुपे रुस्तम को पकड़ने का यही एक माध्यम है।