डॉक्टर प्रवीण झा
यह लिखना जरूरी लगा, तो दो-चार बिंदु रख देता हूँ। भारत की अर्थव्यवस्था खुली होकर भी यह एक बंद देश है। इसके आस-पास दूर-दूर तक कोई लोकतंत्र नहीं। हम कोरोना के गर्भ चीन से सबसे लंबी सीमा रखते हैं, लेकिन वहाँ यूँ ही चहल-कदमी करते तो क्या, ट्रेन से भी आना-जाना संभव नहीं। पाकिस्तान, म्यांमार और बांग्लादेश तक से वही हालात हैं। इसलिए इसकी तुलना यूरोपीय देशों से नहीं हो सकती, जहाँ ‘ओपेन बॉर्डर’ है, बिना पूछ-ताछ, बिना वीसा। यही वजह रही कि चीन से चले वायरस को काफी हद तक ईरान, यूरोप, अरब और अमरीका के रास्ते घूम-फिर कर भारत आना पड़ा। लेकिन, अब तो आ गया। अब आगे क्या?
आगे यह कि इसका प्रभाव उन्हीं स्थानों से शुरू हुआ, जहाँ विदेश आवागमन अधिक है, जैसे बंबई, पुणे, बेंगलुरू, केरल, दिल्ली। इतने में हवाई रास्ता बंद कर दिया गया, लेकिन अंदाज़न हज़ार लोग आ ही गए होंगे। उनमें से सवा सौ अब तक पॉजिटिव आ गए। यह लॉट जाँचने में वक्त लगता है, क्योंकि कई लोग शुरू-शुरू में स्वस्थ ही रहते हैं। लेकिन सोचिए! अमरीका से बीस घंटे हवाई जहाज में बैठ कर कोई आदमी मुंबई/पुणे पहुँचा, और उसमें कोरोना निकला। तो क्या इतने लंबे सफर में एक भरे हुए हवाई जहाज और हवाई अड्डे में किसी और को न पसरा होगा? यही यूरोपीय देशों में भी हो रहा है कि पहले दस दिन तो उनको ढूँढते ही निकल जाता है, जो हवाई जहाज से यह लेकर आए थे। उन दस दिनों में लगभग हज़ार-डेढ़ हज़ार ढूँढ लिए जाते हैं। भारत में भी अगले हफ्ते तक मिल ही जाएँगे। भाग कर कहाँ जाएँगे?
उसके बाद भारत में बीमारी का पसार इटली, ईरान या चीन जैसे सघन देशों जैसा ही माना जा सकता है। पहले ही कुछ दिनों में 3 प्रति 100 का मृत्यु-आँकड़ा आ चुका है, जो विश्व-औसत से अधिक है। उत्तरी यूरोप मे यह फ़िलहाल 3 प्रति हज़ार चल रहा है। इस गति से भारत में मृत्यु की संख्या तेज गति से बढ़ सकती है। हाँ! यह जरूर है कि इसे उड़ीसा के एक गाँव या हिमाचल के किसी सुदूर इलाके में पहुँचने में वक्त लगेगा, लेकिन मुख्य स्थानों और महानगरों में तो यह पहुँच ही जाएगा। यह भी एक विडंबना है कि पैन्डेमिक का आखिरी छोर विश्व के दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश में है। क्योंकि बाकी कई देश अब धीरे-धीरे रिकवरी फेज तक पहुँचते जा रहे हैं। भारत अभी सबसे क्रिटिकल स्थिति में है, जबकि एक आभास हो रहा है कि हम बच जाएँगे, हमारी स्थिति दुनिया में सबसे अच्छी है। यह तो पैन्डेमिक का पैटर्न ही है कि एक समय में कहीं ज्यादा, कहीं कम होता है। यह चलायमान होता है। और इसका संकेत है कि जहाँ पहला केस देर से मिलना शुरू हुआ, उसकी स्थिति सबसे चिंताजनक है।
इसमें सरकार भी ख़ास मदद नहीं कर सकती, यह राष्ट्रीय चेतना से भले संभव है। लेकिन, कोई घर से निकले ही नहीं, मिले ही नहीं, बाज़ार ही न जाए, ट्रेन-बस में न चढ़े, यह भारत में असंभव है। ऐसे में राष्ट्रीय चेतना का मतलब यह होता है कि हम खुद को समुदाय में लाएँ। सभी निजी स्वास्थ्य-केंद्र सहयोग दें। जिनको हल्की बीमारी हो, उम्र कम हो, वे अस्पताल के बेड न भरें। युवक इसके लिए भी तैयार रहें कि स्वास्थ्य-वॉलंटियर बनना पड़े, और आप निश्चिंत रहें, विश्व भर में युवक लगभग इस बीमारी से सुरक्षित हैं। तमाम स्वास्थ्य-कर्मी काम कर ही रहे हैं, और फिर यह वृद्ध और पहले से बीमार लोगों के लिए ही घातक है, जिनकी संख्या देश में करोड़ों में है। उनकी रक्षा के लिए अस्पताल या सरकार नाकाफ़ी ही रहेगी, चाहे वो कही कहीं की भी हो ।
यह बीमारी अब चिकित्सकीय नहीं, आर्थिक समस्या बन चुकी है। पूरी दुनिया मानव-इतिहास में इस तरह कभी बंद नहीं हुई।