डॉक्टर स्कंद शुक्ला,
(लेखक लखनऊ स्थित डॉक्टर हैं और मेडिकल विषयों पर आम लोगों की बोलचाल में लिखने वाले लोकप्रिय लेखक हैं.)
वर्तमान कोविड-19-पैंडेमिक के सन्दर्भ में विश्व-स्वास्थ्य-संगठन पर जो प्रश्न-चिह्न लग रहे हैं वे सर्वथा असत्य नहीं हैं। इस संक्रमण के वैश्विक महामारी बनने से पहले और दौरान भी अनेक गतिविधियों के कारण यह संगठन शक़ के घेरे में आ गया है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प का विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के लिए निर्गत किये जा रहे धन में कटौती की धमकी क्या सार्थक क़दम कहा जा सकता है ?
विश्व-स्वास्थ्य-संगठन पर चीन का ‘प्रभाव’ अनेक कारणों से सामने आ रहा है। विश्व-स्वास्थ्य-संगठन कोई स्वतन्त्र संस्था नहीं है , वह दुनिया-भर के शक्तिशाली देशों के प्रभाव में परतन्त्र रहने के लिए विवश है। सन् 2017 में चीन की लॉबी के प्रभाव के कारण ही इस संगठन के मुखिया टेड्रॉस एधेनॉम गैब्रियेसस चुने गये। अनेक प्रकार के शक्ति-प्रभावों में होने के कारण गैब्रियेसस ने कोविड-19 के दौरान चीन के सरकारी वक्तव्यों के समर्थन-जैसी ही बातें कही हैं। क्या यह सम्भव नहीं कि विश्व-स्वास्थ्य-संगठन जैसी संस्था को एक देश के ऐसे प्रभाव में रहने से रोकना चाहिए ? क्या इसके लिए दुनिया-भर की सरकारों को मिलकर क़दम नहीं उठाने चाहिए ?
जनवरी 14 की उस ट्वीट से बात शुरू करते हैं, जब संगठन ने चीन के अधिकारियों के पक्ष में बयान दिया था कि इस विषाणु का कोई मानव-से-मानव में प्रसार नहीं पाया गया है। यह असत्य बात थी और चीन के अधिकारी इसे जानते भी थे। ताइवान जो कि चीन के कारण संगठन का सदस्य नहीं बन सका है , उसने संगठन को बताया भी था। और फिर जिस दिन यह ट्वीट पोस्ट किया गया, उसी दिन थाइलैंड में भी एक मरीज़ की पुष्टि हुई। यह महिला वूहान , चीन से थाइलैंड आयी थी। इस तरह से विषाणु का थाइलैंड पहुँचना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त था कि विषाणु एक इंसान से दूसरे में जा रहा है।
ताइवान और हॉन्गकॉन्ग ने जिस तरह से इस महामारी से मुक़ाबला किया, वह भी चीन व विश्व-स्वास्थ्य-संगठन को सदोषिता के घेरे में खड़ा करता है। दोनों जनसंख्या-घनत्व वाले क्षेत्र किन्तु दोनों द्वारा उठाये क़दम त्वरित , समझदारीपूर्ण और स्वतन्त्र। दोनों ने ही एक सीमा के बाद विश्व-स्वास्थ्य-संगठन से हटकर अपनी नीतियाँ बनायीं और उन्हें कार्यान्वित किया।
महामारी को पढ़ने के लिए केवल विज्ञान चाहिए? नहीं। विज्ञान से विषाणु और बीमारी समझे जा सकते हैं — लेकिन बीमारी से समाज कैसे बचे — इसके लिए अपने समाज की समझ ज़रूरी है। अपना समाज अपने ढंग से समझा जाएगा , वहाँ वस्तुनिष्ठता काम नहीं आएगी। ताइवान और हॉन्गकॉन्ग ने इसी सन्तुलन का परिचय देकर महामारी से सफल मुक़ाबला किया। उन्होंने चीन और विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के आधिकारिक वक्तव्यों के झूठ पहचान लिये थे। संगठन मास्क पहनने को आधिकारिक रूप से आवश्यक नहीं कहता रहा (आज भी नहीं कह रहा है) और उसने हवाई यात्राओं को भी मना नहीं किया। किन्तु ताइवान ने अपनी जनता के लिए मास्कों के सार्वजनिक प्रयोग के निर्देश दे दिये , सीमाएँ बन्द कीं और यात्रियों को स्क्रीन करना आरम्भ किया। ताइवान को पता था कि सन् 2003 के सार्स की तरह चीन महामारी को ढँकने का प्रयास कर रहा है।
ताइवान ने अपनी टीम दिसम्बर में वूहान भेजी और इस देश के वैज्ञानिकों ने इस विषाणु के मानव-से-मानव-संचार की पुष्टि कर दी। ताइवान ने यह बात विश्व-स्वास्थ्य-संगठन को बतायी भी , यही काम जनवरी चार को हॉन्गकॉन्ग ने किया। संगठन चुप रहा। स्वयं चीन के ही डॉक्टरों को जेल में डालने की धमकी दी जा रही थी, संगठन फिर भी चुप रहा। उसने चीनी सरकार के आधिकारिक मत का कोई खण्डन या विरोध प्रस्तुत नहीं किया। फिर आगे चीन ने वूहान जाकर स्वतन्त्र जाँच-पड़ताल पर भी रोक लगा दी। वहाँ नवीन न्यूमोनिया से लोग संक्रमित हो रहे थे और मौतें होनी भी आरम्भ हो गयी थीं। इसी समय ताइवान ने मास्क-उत्पादन पर ज़ोर देते हुए वूहान से यात्रा पर रोक लगते हुए यात्रियों की सघन स्क्रीनिंग चालू कर दी। ऐसे की क़दम हॉन्गकॉन्ग ने भी उठाये।
बाईस जनवरी। संगठन मानव-से-मानव संचरण की आधिकारिक पुष्टि करता है। चीन के ऐसा करने के बाद। संगठन इस नये रोग को अन्तरराष्ट्रीय चिन्ता का जन-स्वास्थ्य-आपात्-काल भी कहता है। साझे अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की अपील भी करता है। पर अब देर तो हो चुकी है। पर ग़लतियों का दौर यहीं नहीं थमता। देर-पर-देर , ग़लती-पर-ग़लती जारी रहती है। पूरा फ़रवरी और आधा मार्च बिता कर संगठन कोविड-19 को वैश्विक महामारी यानी पैंडेमिक घोषित करता है। एक सौर चौदह देशों में मरीज़ मिलने और चार हज़ार मौतों के बाद ! अब पछताये क्या होत , जब चिड़िया चुग गयी खेत !
समय पर संसार को चेताया जाता, तो शायद तैयारियाँ बेहतर होतीं। कम संक्रमण होते, मौतें भी घट जातीं। लेकिन विश्व-स्वास्थ्य-संगठन का चीन के प्रभाव में रहकर काम करना ऐसी मानव-वृत्ति है, जो हम अपने आसपास रोज़ देखा करते हैं। संगठनों को चन्दा देने वाले और तरह-तरह से प्रभावित कर सकने वाले सेठ-साहूकार संगठन को अपने इशारों पर नचाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि बार-बार विश्व-स्वास्थ्य-संगठन चीन की पारदर्शिता की प्रशंसा करता रहा ; उलटा गैब्रियेसस ने ताइवान पर नस्लीय टिप्पणियों के आरोप लगा डाले ! नतीजा यह हुआ कि दुनिया-भर के देशों की नज़र में यह अन्तरराष्ट्रीय संगठन अपनी शुचिता और निष्पक्षता खो चुका है। पर इस-सब के बाद भी इस संगठन को धन मुहैया न कराने की ट्रम्पीय धमकी से क्या हासिल होगा ? अनेक छोटे व ग़रीब देश इसी संगठन की सहायता से अनेक बीमारियों से लड़ा करते हैं। उनके पास स्वतन्त्र व्यवस्था है ही नहीं कि वे कुपोषण-संक्रमणों व अन्य स्वास्थ्य-समस्याओं से निबट सकें। और फिर इस संगठन को धन न देने और इससे सम्पर्क काट लेने से क्या कोई भी देश भविष्य में दूसरी पैंडेमिकों से बचा रह सकता है ?
महामारियाँ पारदर्शी अन्तरराष्ट्रीय सहयोग माँगती हैं, उसमें इस बार चूक हुई है। चूक को सुधारना चाहिए और विश्व-स्वास्थ्य-संगठन का पुनर्गठन करना चाहिए। कार्यप्रणाली का, परस्पर सहयोग का। धौंस ज़माने, धमकी देने या फिर धन में कटौती करने से क्या देशों के मुखिया अपने-अपने देशों को बचाये रख सकते हैं ? क्या महामारियाँ राजनीतिक सीमाओं का सम्मान करती हैं ?
मानवता से जुडी हर संस्था सत्ता से पोषण पाने पर विवश है। जो पोसेगा, वह प्रभावित भी करेगा। यह हमेशा से होने वाली मानवीय मानव-जन्य-दुर्घटना है। किन्तु इसे यथासम्भव मिलकर रोके रखना है। विषाणु के लिए हम-सब मनुष्य हैं, हम-सब को राजनीति से ऊपर उठकर उससे लड़ना है।