(डायबिटॉलॉजिस्ट और नई दिल्ली स्थित एम्स के मेडिसिन विभाग के प्रोफेसर)
एक ओर जहां हमारे देश की स्वास्थ्य सेवा कोविड-19 महामारी से जूझने में जुटी है वहीं तेजी से बढ़ते गैर-संक्रामक रोग (एनसीडी) एक अलग ही चुनौती पैदा कर रहे हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5) के ताजा नतीजे नीति-निर्माताओं और आम नागरिकों दोनों के लिए ही आंखें खोलने वाले होने चाहिएं। साल दर साल यह स्थिति भयावह होती जा रही है।
ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट-2021 के मुताबिक, असंतुलित और नुकसानदेह खान-पान से जुड़े कारणों से वर्ष 2018 में दुनिया भर में करीब 1.2 करोड़ लोगों की असमय मौत हो गई। इनमें दिल का दौरा पड़ने, स्ट्रोक, कैंसर और डायबिटीज जैसी गैर-संक्रामक बीमारियां प्रमुख थीं। आज सबसे बड़े और सबसे तेजी से बढ़ते मौत के कारणों में से डायबिटीज काफी प्रमुख हो गई है। मोटापे के कारण होने वाले डायबिटीज से पीड़ित लोगों की संख्या भारत में वर्ष 2030 तक बढ़कर 10.1 करोड़ होने की आशंका है जो वर्ष 2019 में 7.7 करोड़ थी।
न सिर्फ बच्चों बल्कि महिलाओं और पुरुषों में भी मोटापा तेजी से बढ़ता जा रहा है। एनएफएचएस-5 के मुताबिक, 20.6 प्रतिशत से बढ़कर 24 प्रतिशत महिलाओं में यह समस्या हो गई है। वहीं पुरुषों में मोटापा 18.9 प्रतिशत से बढ़कर 22.9 प्रतिशत हो गया है। न सिर्फ महानगरों या शहरों में मोटापा और गैर-संक्रामक रोगों (एनसीडी) में इजाफा हो रहा है, बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी यह तेजी से बढ़ रहा है। इसकी वजह फूड इंडस्ट्री की आक्रामक मार्केटिंग रणनीति है जिससे इन इलाकों में भी ज्यादा वसा, नमक और चीनी (एचएफएसएस) वाले डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की बिक्री बढ़ी है। इसका खमियाजा स्वास्थ्य और आर्थिक मोर्चे पर ग्राहकों और देश दोनों को भुगतना पड़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक, हर साल करीब 58 लाख भारतीयों की मौत उन गैर-संचारी रोगों की वजह से होती है जिन्हें रोका जा सकता है।
कोविड संक्रमण को रोकने के लिए भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में लगाए गए प्रतिबंधों जैसे वर्क फ्रॉम होम, लॉकडाउन, सोशल डिस्टेंसिंग और यात्राओं पर पाबंदियों की वजह से नए स्वास्थ्य संकट ने जन्म लिया है। इसकी वजह से डिब्बाबंद और तैयार खाद्य पदार्थों की मांग में इजाफा हुआ, जबकि ज्यादातर लोगों की शारीरिक गतिविधियां या शारीरिक श्रम पहले की तुलना में घट गया। चिंताजनक बात यह है कि ताजा फल, सब्जियां और अन्य पौष्टिक आहार जैसे कई स्वस्थ विकल्पों के उपलब्ध रहने के बावजूद इन नुकसानदेह विकल्पों को ग्राहकों के सामने बढ़ावा मिल रहा है।
दो साल से भी ज्यादा समय से कोरोना वायरस मौजूद है और आगे भी इसका अस्तित्व रहने की आशंका है। ऐसे में बतौर नीति-निर्माता सरकार को, समाज को और साथ ही साथ प्रत्येक जिम्मेदार व्यक्ति को इस महामारी ने आत्मनिरीक्षण करने का दूसरा मौका दिया है कि गैर-संक्रामक रोगों को बढ़ाने वाली खाने-पीने की चीजों को किस तरह बढ़ावा दिया जा रहा है और इसे कैसे कम किया जा सकता है। डब्ल्यूएचओ ने इसे रोकने के लिए तीन महत्वपूर्ण रणनीतियों की अनुशंसा की है। पहला, अनहेल्दी फूड्स और बेवरेजेज के पैकेट पर फ्रंट-ऑफ-पैकेज लेबल (एफओपीएल) की व्यवस्था, दूसरा, बच्चों के लिए इस तरह के खाद्य पदार्थों की मार्केटिंग पर प्रतिंबध लगाना और तीसरा, स्कूलों में इन उत्पादों की बिक्री पर पाबंदी लगाना शामिल है।
ग्राहकों को इस बात की स्पष्ट जानकारी देने की जरूरत है कि जो डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थ वे खरीद रहे हैं उसका न्यूट्रिशन प्रोफाइल क्या है यानी उसमें कितना पोषक तत्व मौजूद है। साथ ही जरूरत इस बात की भी है कि लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए फूंड इंडस्ट्री को इसके लिए प्रेरित किया जाए कि वे अपने उत्पादों में सुधार लाएं। यह तभी संभव हो सकेगा जब डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थों के पैकेट पर आसानी से समझ में आने वाले चेतावनी लेबल को लगाना अनिवार्य किया जाएगा। इससे न सिर्फ उपभोक्ताओं को स्वस्थ विकल्प अपनाने में मदद मिलेगी, बल्कि गैर-संचारी रोगों से होने वाली मौतों को भी कम करने में यह मददगार होगा। जैसा कि सिगरेट के पैकेट पर स्पष्ट चेतावनी की व्यवस्था की गई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, वास्तव में एफओपीएल तभी अच्छे तरीके से काम करता है जब इसे अनिवार्य बना दिया जाए और सभी डिब्बाबंद उत्पादों पर इसे लागू किया जाए। चेतावनी लेबल आसान और पढ़ने लायक रूप में छापा जाए, व्याख्यात्मक हो और मजबूत न्यूट्रिएंट प्रोफाइल मॉडल से निर्देशित हो। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि चेतावनी लेबल को अनिवार्य बनाए जाने के बाद ही ऐसे उत्पादों की खपत में कमी आती है।
दक्षिण अमेरिकी देश चिली का उदाहरण हमारे सामने है। चिली ने ऐसी नुकसानदेह पैकेटबंद खाने-पीने की चीजों पर “अधिक मात्रा में है” वाली चेतावनी को छापना अनिवार्य कर दिया है। इस चेतावनी व्यवस्था को खाने-पीने की चीजों पर फ्रंट ऑफ पैक लेबल (एफओपीएल) का गोल्डन स्टैंडर्ड माना जाता है। इस देश ने ज्यादा वसा, नमक और चीनी (एचएफएसएस) वाले डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थों पर बच्चों को ध्यान में रखकर मार्केटिंग करने तथा स्कूलों में बिक्री पर भी प्रतिबंध लगाया है। ऐसे उत्पादों पर काले अष्टभुजाकर घेरे में यह भी लिखा होता है कि इनमें चीनी, नमक, संतृप्त वसा और कैलोरी की मात्रा ज्यादा है। एफओपीएल को अनिवार्य बनाने का चिली को लाभ मिलना शुरू हो गया है। साथ ही यह अपने ज्यादा से ज्यादा नागरिकों को इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है कि वे एचएफएसएस उत्पादों को “ना” कहें और इससे दूर रहें।
एक अन्य क्षेत्र, जहां हमें एक जिम्मेदार समाज और सरकार को नीति-निर्माता के रूप में हस्तक्षेप करना चाहिए, वह यह कि बारीकी से इसकी निगरानी होनी चाहिए कि टीवी स्क्रीन पर हमारे बच्चों के लिए क्या परोसा जा रहा है। विभिन्न रिपोर्टों में कहा गया है कि फास्ट फूड इंडस्ट्री भविष्य के अपने संभावित उपभोक्ताओं के रूप में बच्चों पर खास नजर रख रहा है। खासकर तब जब बच्चे दो साल की उम्र से ही टीवी पर विज्ञापन देख रहे हैं। छह-सात साल पहले की तुलना में आज बच्चे टीवी पर फास्ट फूड के विज्ञापन 33 प्रतिशत ज्यादा देखते हैं, जबकि स्कूल जाने की शुरुआत करने वाले बच्चे (प्री-स्कूलर्स) ऐसे विज्ञापन 21 प्रतिशत ज्यादा देखते हैं। यह खतरे की घंटी है।
खाने-पीने की पैकेटबंद नुकसानदेह चीजों पर ऐसी चेतावनी (एफओपीएल) को अनिवार्य बनाने और इनकी मार्केटिंग पर प्रतिबंधों जैसे कुछ उपाय हैं जो गैर-संक्रामक रोगों के बोझ को काफी हद तक दूर कर सकते हैं। दुनिया भर के देश इस तरह के कदम उठा रहे हैं। पोषण के लिहाज से सुरक्षित और स्वस्थ भविष्य के निर्माण की दिशा में भारत भी कदम बढ़ाने की प्रक्रिया में है।